सुबह का समय था। वह पहाड़ के पैरों तले खड़ा होकर पर्वत के शिखर को अनिमेष नेत्रों से निहारे जा रहा था, बिलकुल गर्दन सीधी ऊपर किये हुए, ठीक वैसे ही जैसे घनघोर अकाल में कोई किसान आशाविहीन आँखों से आकाश की तरफ टकटकी लगाकर धधकते अम्बर से मेघ का आह्वान करता है।
अचानक उसने मेरी तड़फ मुड़ते हुए पूछा, ‘अच्छा रोहित भाई, मुझे यह बताओ कि पर्वत और उसके शिखर मनुष्य को इतना आकर्षित क्यों करते हैं?’
इससे पहले कि मैं कुछ सोच पाता उसने दुबारा प्रश्न किया। उसने पूछा, ‘क्या इसलिए, कि मनुष्य की चेतना का स्वर उधर्वगामी है? वह हमेशा शिखर को छूना चाहता है? वह हमेशा ऊपर उठना चाहता है? वह चोटियों से बात करना चाहता है? उसकी आत्मा किसी ऊँच सत्ता से एकाकार हो जाना चाहती है? क्या इसीलिए शिखरों के पत्थर मनुष्यों के ह्रदय को इतना प्रिय हैं?”
वह मेरे बचपन का मित्र था। अचानक वह दार्शनिक किस्म की बातें करने लग गया था, हालांकि दर्शन में उसकी रूचि जरुर थी पर मेरी नहीं। मैंने झटपट उसका हाथ पकड़ा और बोला, ‘अच्छा छोड़ो ये सब अटपटी बातें, चलो अब घर चलते हैं नही तो धुप हो जायेगी।’ उसने हाथ छुडाते हुए एकदम से ना कह दिया। उसने कहा कि वह उस पर्वत के शिखर पर जाना चाहता है, उस पहाड़ के मुकुट का करीब से दीदार करना चाहता है, उस पर्वत के सबसे ऊँची चट्टान पर, उसके मस्तक पर कैलाशपति की तरह नृत्य करना चाहता है। मैंने उसे समझाने का हरसंभव प्रयास किया पर उसने मेरी बात नही मानी, उसने जिद्द पकड़ लिया। अंततः मुझे उसके साथ शिखर पर चढ़ने के लिए सहमत होना पड़ा।
शाम होते-होते हमलोग वहां पहुँच चुके थे जिसे वह ‘पर्वत के पैरों’ तले खड़ा होकर ‘पर्वत के शिखर’ की संज्ञा दे रहा था। लेकिन वहां पहुँचने के पश्चात वह हतप्रभ था, और थोड़ा निराश भी। उसे चढ़ाई की ख़ुशी जरुर थी, परन्तु शिखर उसे कहीं दिखाई नही दे रहा था। वहां तो सिर्फ और सिर्फ कुछ चट्टान थे, और कहीं समतल तो कहीं उबड़-खाबड़ जमीन। जिस शिखर ने उसे निचे से देखने पर उतना आकर्षित किया था, वह शिखर, उस शिखर पर आकर विलुप्त हो चूका था। अब वहां कोई उंचाई न थी। उंचाई के नाम पर सिर्फ अनंत आकाश और करोरों मिल दूर धधकता सूर्य।
अचानक उसकी नज़र निचे की घाटी पर गयी और वह ख़ुशी से उछल पड़ा। “रोहित भाई…रोहित भाई…उसने चिल्लाते हुए कहा, वह देखो घाटी, कितना सुन्दर..कितना मनोरम दिखाई दे रहा है। वह पहाड़ के निचे, सड़क के किनारे वाली सबसे ऊँची पेड़ कितनी छोटी दिखाई दे रही है। घाटी में सिर्फ हरियाली ही हरियाली है। कितना मार्मिक दृश्य है, है न?”
मैं चुप था, परन्तु उसके ख़ुशी की कोई सीमा न थी। अब वह शिखर की सुन्दरता भूल गया था, उसके न पाने की निराशा से उबर चूका था। अब उसे पर्वत के शिखर नही, पर्वत के खाई, उसके चरणों में बिछे हुए हजारों-लाखों हरे-भरे पेड़-पौधे आकर्षित कर रहे थे। सुबह जिसे किसी के मुकुट से प्यार था, शाम होते-होते उसे उसके चरणों से प्रेम हो गया। सुबह जो पर्वत के शिखरत्व का कायल था, शाम में उसे उसकी लघुता से इश्क हो गया। यह कैसी अनोखी घटना है, मैं मन ही मन सोच रहा था।
मुझे इस दुविधा में रहा नही जा रहा था। मैंने आखिरकार उससे पूछ ही लिया। मैंने उससे कहा, अच्छा तुम यह बताओ, कि क्या तुम्हे अब भी ऐसा लगता है कि मनुष्य के चेतना का स्वर उधर्वगामी है? वह हमेशा शिखर को छूना चाहता है? वह हमेशा ऊपर उठना चाहता है? वह चोटियों से बात करना चाहता है? उसकी आत्मा किसी ऊँच सत्ता से एकाकार हो जाना चाहती है?” मेरे प्रश्न ने अचानक उसके ख़ुशी में खलल डाल दिया था। वह चुप हो गया, बिलकुल चुप। पर्वत के उसी घाटी की तरह मौन। मैंने उससे दुबारा पूछा, परन्तु कोई जवाब नही मिला। वह सोंच में पड़ गया, किसी आकस्मिक चिंतन में विलीन हो गया। अब उसे शिखर में विलीन होने की चिंता न थी। अचानक उसके कदम बढ़ने लगे। अब वह निचे उतरना चाहता था, पर्वत के चरणों में, मिट्टी की ओर, उसी मिट्टी की ओर जिसके आधार के बिना पर्वत की उंचाई का, उसके शिखर का, सीना ताने गर्व से प्रफुल्लित उसके मस्तक का अपना कोई अस्तित्व नही है।
मैं भी उसके पीछे-पीछे भारी क़दमों से चलने की चेष्टा कर रहा था। बार-बार उसकी दुविधा मेरे मन में यह प्रश्न पैदा कर रही थी कि क्या मनुष्य की चेतना का चरित्र ही सार्वभौमिक संशय से ग्रस्त है? जवाब न उसके पास था, न मेरे पास।
