पत्थर सी हो चुकी थी वो आँखे, चेहरा झुर्रियोँ में छिपा, शिथिल वो शरीर। मैं रोज़ उसे देखता। कोई अंतर नहीं आता कभी। दिन महीने साल गुज़र गए, पर वो वैसी ही रही। है तो मेरी मकान मालकिन ये, पर ना जाने क्यों इसकी ख़ामोशी से एक रिश्ता सा बनता …
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