पत्थर सी हो चुकी थी वो आँखे, चेहरा झुर्रियोँ में छिपा, शिथिल वो शरीर। मैं रोज़ उसे देखता। कोई अंतर नहीं आता कभी। दिन महीने साल गुज़र गए, पर वो वैसी ही रही। है तो मेरी मकान मालकिन ये, पर ना जाने क्यों इसकी ख़ामोशी से एक रिश्ता सा बनता जा रहा था।
हर रोज़ सुबह आँगन में झाड़ू मारते दिख जाती। हर रोज़ मैं एक नया सवाल करता, पर उस तक शायद आवाज़ नहीं जाती।
बारिश होने पर थोड़ी बेचैन सी दिखती जैसे कोई भीग के बीमार ना पड़ जाए। ये निगोड़ी बारिश, कह कह ये ख़ुद में बड़बड़ाती। बग़ल के एक चाचा कहते कि कल की ही तो बात है जब बच्चे को अपने चप्पल से लाल कर रही थी, भीग कर घर आने पर। अब वो नहीं आता। किसी भी मौसम में। इसने पर स्वेटर बुनना छोड़ा नहीं है। कभी कभी मुझे इसी पे ग़ुस्सा आता। स्वीकार क्यों नहीं करती इस बात को कि अब वो नहीं आएगा। भाड़ा देने जाता तो जी आता अपने सवालों से लाद दूँ इसे। पर ये बड़ी सहजता से भावना शून्य रहते हुए मेरे बालों पर हाथ फेर देती। ऐसा क्यों करती है ये। मैं इसके प्यार से सहम जाता हूँ। वो नालायक आख़िर आता क्यों नहीं। क्यों पढ़ाया उसे इतना कि आज भी ये अकेली रहे, घर के काम करे। उसकी तस्वीर कभी एकटक देखती रहती। जाने क्या सुकून मिलता। मुझे पर चिढ़ होती, बेहद।
सवालों को लेकर उन्हीं बुज़ुर्ग के पास गया।
“चाचा, इसका लड़का रहता कहाँ है, कोई नंबर तो होगा। साला कभी आता क्यों नहीं बुढ़िया के पास।”
बोले, “लागत है तोरा कुच्छो पता नईखे। “
“मतलब??”
“मतलब का? पहले आता था छुट्टियों में। अब आ नहीं सकता। कभी नहीं।”
मुझे घबराहट होने लगी।
कहीं। कहीं?
संकोच पकड़ लिया बुढ़ऊ ने।
“जो तुम सोच रहा है न, ओही सही है। पानी में निहाए गया था लईकवा, पानी ले ले चल गइल।”
मेरी साँस उधर ही अटक गयी। सब सिमट रहा था। गुज़रा हुआ, देखा हुआ। उसकी पत्थर सी आँखे, भावना शून्य चेहरा, ख़ुद में बड़बड़ाना, तस्वीर के आगे रहना, वो स्वेटर का बुना जाना। सब सामने तैरने लगे। साफ़ हो रहा था सब कुछ। हतप्रभ मैं दौड़ पड़ा। ख़ाली पैर। जून में भी तलवा जल नहीं रहा था। या शायद कुछ सूझ नहीं रहा था। दरवाज़े पर ही बैठी थी वो। वही, वैसी ही, जाने कहीं खोयी हुई। रोकना मुश्किल था ख़ुद को उस समय। घुटने पर आया और उसकी गोद में सर रखकर फूट पड़ा। सब पिघल रहा था अंदर। पर वो अभी भी सहज थी, मेरे बालों में हाथ फेरते हुए। उसके एहसास में मेरी माँ का एहसास था। सहसा मुझे ख़याल आया, पिछले ११ महीनों से मैं भी घर नहीं गया था। दुख को अब शर्म ने घेर लिया था। मुझे उसी समय घर जाना था। देर अभी भी नहीं हुई थी।
आप आख़िरी बार कब घर गए थे? जाइए। अभी। घर जाने को कभी देर नहीं होती। जाइए, उसने स्वेटर बुन लिया होगा।

Full time actor, part time labor, aspires to be a big time writer.