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निखिल डे – जिन्होंने अपना निखिल जीवन समाज के लिए समर्पित कर दिया है

Published Date: January 10, 2018

“जीवन उनका नही युधिष्ठिर, जो उससे डरते हैं,

वह उनका, जो चरण रोप, निर्भय होकर लड़ते हैं,

मही नही जीवित है, मिट्टी से डरनेवालों से,

जीवित है यह, उसे फूंक,  सोना करनेवालों से “

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कालजयी रचना ‘कुरुक्षेत्र’ से उद्धृत उपरोक्त पंक्तियाँ सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे पर अक्षरशः चरितार्थ होती हैं. एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपने नाम के साथ वास्तव में भरपूर न्याय किया है. निखिल का शाब्दिक अर्थ होता है ‘सम्पूर्ण’. यह कहने में कोई अतिश्योक्ति न होगी कि निखिल जी ने वास्तव में अपने निखिल जीवन को उसकी निखिलता में देश और समाज के लिए समर्पित कर दिया है. आज मैं उस शख्स के निखिल जीवन के एक अत्यंत ही सूक्ष्म हिस्से को कागज़ पर उकेरना चाहता हूँ जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन गरीबों, असहायों, बेबसों अथवा लाचारों के लिए पूर्ण रूप से अर्पित कर दिया है. निखिल जी स्वभाव से अत्यंत ही शीतल, ह्रदय से निष्कपट, इंसानियत के हिमायती एवं लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी हैं जिनमे जिजीविषा कूट-कूट कर भरा है. यह छोटी परिभाषा ही उनकी विराटता की वास्तविक पहचान है.

आजादी के बाद भारत के लोकतान्त्रिक व्यस्था को प्रगाढ़ रूप से मजबूत बनाने का काम यदि सच में किसी ने किया है अर्थात यूँ कहें कि सही मायने में लोकतंत्र को और मजबूत बनाने का तरीका किसी ने ईजाद किया है तो अविवादित रूप से वे अरुणा राय, निखिल डे और उनका संगठन ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ ही है, जिन्होंने लोकतंत्र की आत्मा से ‘लोक’ को ‘लोक’ के माध्यम से अवगत कराया है. 

आरटीआई कानून को लाने में अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर इन लोगो ने देश में सही मायने में लोकतान्त्रिक ढांचे के अंतर्गत लोगो को सरकार एवं नौकरशाही से सीधे तौर पर सवाल करने का एक अनोखा हथियार मुहैया कराया है.

हाल के दिनों में मुझे निखिल जी के साथ कुछ पल बिताने का अवसर प्राप्त हुआ. जितना समय इनके सानिध्य में बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ वह वर्तमान से लेकर भविष्य तक में, किसी भी समय, जब कर्म-पथ पर अग्रसर मेरा मन किसी दुविधा से ग्रसित होगा अथवा कोई संकोच घर करेगा या कर्मशीलता में कही कोई भटकाव होगा तो मैं इतना आश्वस्त हूँ कि  निखिल जी की कर्तव्यनिष्ठा को याद कर पुनः एक नवीन ऊर्जा के साथ अपने कर्म-पथ पर अग्रसर हो जाऊँगा.

वैसे तो निखिल जी से मेरी पहली मुलाक़ात मेरे अग्रज रोहित के साथ वरीष्ठ वकील प्रशांत भूषण के दिल्ली स्थित कार्यालय में हुई थी जहाँ उन्होंने अपने नैसर्गिक मुस्कान के साथ कुशलक्षेम पूछते हुए हाथ मिलाया था और वापस मिलने का वादा करते हुए विदा लिया था. उसके करीब दो साल बाद ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ में इंटर्नशिप  के दौरान उनसे लगातार मुलाकातें होती रहीं और बातों का सिलसिला चलता रहा.  ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ में पहली मुलाकात का किस्सा थोड़ा रोचक है. मैं खाना खाने के बाद बर्तन साफ कर रहा था तभी  एम०के०एस०एस का एक कार्यकर्ता आकर कहता है कि S.F.D (School For Democracy) अर्थात लोकतंत्रशाला से निखिल जी पोहा लेकर आये हैं, आप सब लोग मिल बाँट कर खा लो. तब मुझे थोड़ा भी अहसास नही हुआ कि आखिर कौन निखिल जी पोहा लेकरआये हैं. जब मैं हॉल में पंहुचा तब वहाँ पर एक मीटिंग हो रही थी. वहीं फर्श पर निखिल डे बैठे हुए थे तथा कुछ सामाजिक मुद्दे पर चर्चाएँ चल रही थी. मैं भी वहां धीरे से बैठ कर चर्चाएँ सुनने लगा. कुछ ही देर बाद वहां वह कार्यकर्ता भी आया जिसने हमलोगों को पोहा खाने की सुचना दी थी. वह मेरे बगल में ही बैठ गया. तब मैं पूछ बैठा, ‘भाई, कौन निखिल जी पोहा लेकर आयें हैं? तो उसने निखिल डे की तरफ इंगित करते हुए बोला, यहीं तो हैं जो तुम्हारे सामने बैठे हैं. उसी दिन इस व्यक्ति की परम सरलता और अपनी पहचान को जमीन और यथार्थ से जोड़ कर रखने की काबिलियत पर मैं कुर्बान हो गया. जहाँ लोग थोड़ी रसूख और पहचान बढ़ जाने पर सीधे मुँह बात तक करना मुनासिफ नही समझते वहीं निखिल जी ने अपना पूरा जीवन ग़ुरबत से जूझ रहे लोगो के ख़िदमत में अर्पित करने के बावजूद भी उनसे ‘जी-हुजुरी’ की एक हल्की आकांक्षा को भी अपने ह्रदय में स्थान न देने की निष्ठा को अपने जीवन का उच्चतम मूल्य बनाया है और उनकी यही निष्ठा उनके सम्पूर्ण जीवन को अत्यंत ही सरलता से विराट रूप में परिभाषित करती है.

गाँधी के पुजारी या भक्त राजनीति के डपोल-शंख नेता नही है बल्कि निखिल जी के जैसे ही न जाने कितने लोग इस देश में हैं जो अपने नाम एवं पहचान को दबाकर अथवा गुमनामी के पथिक बनकर लांखो लोगो के लिए सेवा की भावना से ओतप्रोत हो असहायों एवं निर्बलों के क्लेश को अपना क्लेश मानते हुए, उनलोगों के लिए एक विराट संबल बन खड़े हैं. ऐसे आंसुओं में जिंदगी बिता रहे लोगो के चेहरे पर मुस्कान लाना ही इनके जीवन का परम उद्देश्य है.

निखिल जी जैसे लोग अपने मंजिल के लिए अपने कर्तव्य पथ पर लाठी खाते हैं, जेल जाते हैं, असामाजिक तत्वों की गाली सुनते है और हर तरह की यातना सहते हुए भी मंजिल की ओर अग्रसर रहते हैं एवं अपने आखिरी साँस तक सेवा के प्रण को जीवित रखते हैं. आज के दौर में समाज सेवा करने वालो की संख्या ‘बहुतों’ में होगी पर निखिल जी की तरह समाज सेवा की दीवानगी रखने वालो की संख्या बहुत कम है.   

आज निखिल जी का जन्मदिवस है. वह स्वयं तो ईश्वर में विश्वास नही करते परन्तु ऐसा करने वालों की आस्थाओं का भरपूर सम्मान अवश्य करते हैं.और, चूँकि मैं ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता हूँ, अतः मेरी सर्वशक्तिमान से प्रार्थना है कि निखिल जी शतायु हों और इसी तरह अपनी अकूट जिजीविषा, समर्पण एवं कर्तव्यनिष्ठा से वंचितों की आवाज़ बने रहें तथा लोकतंत्र को दिन-प्रतिदिन सुदृढ़ बनाने की प्रक्रिया में संलग्न रहें.