(यह लेख अनुपम ने वर्ष 2011 में तब लिखा था जब अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था। ऐसे दौर में जब हर तरफ लोग “मैं अन्ना हूँ” की टोपी पहनकर घूम रहे थे, उसी वक़्त अनुपम ने यह लेख लिखा था।)
बड़े दिनों से कुछ लिखने की सोच रहा था लेकिन आज जाकर कलम घिस पाया हूँ। व्यस्तता की दुहाई नहीं दूंगा। असल में अन्ना हज़ारे ने मुझे बाँध सा लिया था. ऐसा माहौल बना दिया कि भ्रष्टाचार के अलावा कुछ और लिखना काबीलियत से परे और अन्ना या उनके आन्दोलन पर आलोचक की तरह लिखना मेरी हिम्मत से परे था। इस ‘पवित्र’ आन्दोलन पर कोई समीक्षा सबको नागवार गुज़रती और आप मुझे ही भ्रष्टाचारी होने का तमगा दे देते।
ख़ैर मैंने लिखा तो कुछ नहीं, लेकिन इस सीज़न को करीब से देखने और समझने की पूरी कोशिश की। बड़ा ख़ुशगवार सा मौसम है ये। क्यूंकि, तरह तरह के घोटालों की गूँज के बाद अब जनमानस के गूंजने की बारी आयी थी। यह सीज़न उम्मीदों का था, सत्ता से सवाल और सरकार से जवाबदेही का था। फिजा में ऊर्जा थी, भाईचारा था और साथ ही भ्रष्टाचार के प्रति अथाह आक्रोश। माहौल ऐसा कि कलमाड़ी और राजा तिहाड़ में ही ज्यादा सुरक्षित फील कर रहे थे। यदि बाहर भी होते तो “मैं अन्ना हूँ” लिखी टोपी पहनकर घूमते।
लेकिन आन्दोलन से हमें एक चिंताजनक बात ये मालूम पड़ा कि देश में हर कोई खुद को ही अन्ना बताने लगा है। भारत के गाँव-गाँव गली-गली में आपको “अन्ना” मिल जाते। सबके सब अन्ना, पूरा देश अन्ना बन गया! जब सब अन्ना ही हैं तो फिर इस आन्दोलन की आवश्यकता ही क्यूँ, किस से लड़ रहे हैं हम?
इस ज्वलंत मौसम में मैंने अपने देश और देशवासियों के बारे में बहुत कुछ देखा और समझा। लालू यादव जब आन्दोलन का विरोध करते हैं और “मैं अन्ना हूँ” बोलने से इनकार करते हैं, तो हमें समझ आता है। इसमें उनकी सच्चाई झलकती है। लेकिन जब बाकी का पूरा राष्ट्र खुद को अन्ना बताता है तो इसमें दोगलापन झलकता है। मौकापरस्ती झलकती है, कांग्रेस सरकार की कमजोरी और अन्ना की ताकत झलकती है।
अनशन और आन्दोलन के उस ख़ुशमिज़ाज़ मौसम में खुद को भ्रष्टाचार विरोधी साबित करना बहुत आसान हो गया था। इसके लिए बस तीन चीज़ें चाहिए थीं – एक मोटर-साइकिल, एक तिरंगा और कुछ खाली समय। ऐसी लहर चल रही थी कि मधु कोड़ा भी कहीं मोटर-साइकिल चलाते पाए जा सकते थे।
इस बीच मैंने दिल्ली में अन्ना की टोपी पहने हुए शराबियों को हुर्दंग करते भी देखा है। चंडीगढ़ में दिन भर नारे लगाने वालों को रात में २५ का माल ३० में बेचते हुए भी देखा है। ऐसे लोगों के लिए अन्ना एक मुखौटा भर हैं अपनी गन्दगी को छुपाने का। भारत में भ्रष्टाचार किस गंभीर हद तक जड़ें जमा चूका है यह इसी बात से समझ आ जाती है कि हमें अपनी इमानदारी स्थापित करने के लिए अन्ना का नाम चाहिए, अपना नहीं।
मुझे पता है कि मैं अन्ना नहीं हूँ, अनुपम हूँ..!!
आप कौन हैं? क्या आपको भी इमानदार बनने के लिए अन्ना का सहारा लेना पड़ रहा है? अगर हाँ, तो जो अन्ना टोपी कल बीस रूपये में बिक रही थी, आन्दोलन ख़त्म होते ही उसकी कीमत घट गयी है। जाइये, अब तो पाँच रूपये में ही आप भ्रष्टाचार विरोधी बन सकते हैं!
(अनुपम, युवा हल्ला बोल आंदोलन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)

Editorial Board, Express Today