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हिंदी -एक उपेक्षित राष्ट्रीय प्रतीक

Published Date: September 2, 2015

मुंशी प्रेमचंद ने कहा था, “जिस राष्ट्र की अपनी एक सशक्त भाषा नहीं हो उस राष्ट्र की कोई पहचान भी नहीं होती।”
भारत हमेशा से इतनी विविधताओं से भरा रहा है कि कोई एक राष्ट्रीय प्रतीक नहीं था जो सही मायनों में पूरे जनमानस को एकरूपता से स्पर्श करता हो। हमारी भौगोलिक सरंचना, मान्यताएं, रीति-रिवाज़, इतिहास और क्षेत्रीय भाषाओं के आधार पर हम में कोई समानता नही थी। ऐसी परिस्थितियों में हिन्दी भाषा में ही वो संभावना थी जो एक मज़बूत राष्ट्रीय प्रतीक का निर्माण कर सके। किन्तु आज यदि राष्ट्रीय प्रतीकों की बात करें, तो भारत में सिर्फ दो ही ऐसी चीज़ें हैं जिसकी देश के हर कोने  में पहचान हो  -एक हमारा तिरंगा और दूसरा क्रिकेट !!
हमारी स्वतन्त्रता के क्रांतिवीरों और कुछ समकालीन राजनीतिज्ञों ने इस दिशा में कार्य भी किया। राजगोपालचारी ने दक्षिण भारत में हिन्दी के उत्थान के लिए ढेरों आन्दोलन किये। महाराष्ट्र में बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले और दामोदर सावरकर ने परिश्रम किया। केरल में आज भी ढेरों लोग अपने बच्चों को अवश्य ही हिन्दी की शिक्षा देते हैं।
फ़िर भी हिन्दी की इतनी चिंताजनक अवस्था होने का सबसे बड़ा कारण क्या है?  शायद राजनीतिक  इच्छा-शक्ति का न होना! गोपालचारी के दक्षिण भारत से ही देवगौड़ा जैसे प्रधानमन्त्री आते हैं जो हिन्दी बोल ही नही पाते। गोखले, तिलक और सावरकर के महाराष्ट्र में ठाकरे जैसे नेता हैं जो हिन्दी की पढ़ाई को ही क्षति पहुंचा रहे हैं। बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने लोगों को हिन्दी से दूर करने के लिए एड़ी-चोटी का दम लगा दिया। कुछ राज्यों में दुकानों पर हिन्दी में लिखे होने का भी विरोध होता है और केन्द्र सरकार भी चंद वोटों के लिए इस पर नकेल नही कसती।
मैं किसी भी भाषा के विरोध में नही हूँ। आप शायद सोचें कि इतने दिनों से स्वयं अंग्रेज़ी में लिखता रहा और आज मैं ये सब कह रहा हूँ! तो असल में मैं अंग्रेज़ी के माध्यम से उन कुछ लोगों तक पहुंचना चाहता हूँ जिनका सामाजिक और राजनितिक विचारों से कोई सरोकार नही बचा है।  एयर-कंडीशंड कमरों में बैठे वो लोग जो बातें तो ऊँची-ऊँची करते हैं लेकिन असल भारत से पूर्णतयः अनभिज्ञ हैं। मेरे कुछ मित्र मुझे पूर्णतः हिन्दी में ही लिखने की सलाह देते हैं किंतु मैं हर वर्ग तक पहुंचना चाहता हूँ। और विडम्बना ये है की भारत राष्ट्र में भी सभी वर्गों तक हिन्दी की पहुँच नही है।
ऐसे बच्चों को देखकर मुझे बड़ी ख़ुशी होती है जो हिंदी में गिनती करते हुए चौसठ-पैंसठ के बाद फसते नहीं हैं. असल में हिंदी भी वहीँ कहीं फस गयी -चौसठ के फेर में. और हमारी मात्रभाषा सन चौसठ-पैंसठ के बाद से मात्र एक भाषा ही रह गयी! आज की नयी पीढ़ी अगर हिंदी से दूर जाती दिख रही है, तो इसमें कहीं न कहीं दोष हमारा ही है।
परन्तु आज भी युवाओं का एक वर्ग है जिनमें निष्ठावान हिन्दी-प्रेम है और मुझे पूर्ण विश्वाश है कि आज नही तो कल हिन्दी भाषा भारत की सबसे ज्वलंत राष्ट्रीय प्रतीक होगी। हिन्दी हमारी राष्ट्र-भाषा ही नही राष्ट्रीय चेतना भी है।
जय हिंद । । जय जवान । ।