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मौन मुस्कान की मार : आशुतोष राणा

Published Date: October 25, 2022

श्री आशुतोष राणा जितने मंझे हुए कलाकार हैं, उतने ही सधे हुए साहित्यकार। जितने बड़े अभिनेता उतने ही गंभीर अध्येता। फिल्मों में जैसी उनकी भावाभियक्ति, लेखन में उतनी ही गहन सर्जनात्मक अभिव्यक्ति। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति न होगी कि उनका व्यक्तित्व इंद्रधनुषी है। इसमें जीवन के विभिन्न खुबसूरत रंगों का सम्यक समावेश है।

जबसे उनकी सत्ताईस व्यंग्य-लेखों की श्रृंखला जो कि ‘मौन मुस्कान की मार’ नामक किताब में संकलित है, पढ़ा हूँ, तबसे उनके समसामयिक तत्वचिंतन की गंभीरता, उनकी विवेकशीलता तथा व्यंग्यात्मकता पर सम्मोहित हूँ।

श्री आशुतोष राणा का व्यंग्य-वितान बहुत विस्तृत है। उनकी रचना-संसार में चित्रित चिंताएं न सिर्फ समय की अनवरतता में अपरिवर्तित सामाजिक विडम्बनाओं को व्यंग्यात्मक लहजे में व्याख्यायित करता है अपितु समसामयिक सामाजिक सन्दर्भों में उपजे नव-कुरूतियों पर भी निर्मम कुठाराघात करता है। लेखक की चिंतनधारा न सिर्फ उनके व्यंग्य को बल्कि उनकी वैचारिक प्रक्रिया को भी एक ओजपूर्ण धार देता है। श्री राणा की चेतना-संपन्न दृष्टि न सिर्फ व्यंग्य की विराटता को पोषित करती है अपितु उसे और अधिक प्रतिष्ठित भी।

अपने व्यंग्य-लेख ‘लामचंद की लालबत्ती’ में लेखक अपने पात्र लामचंद के माध्यम से लालबत्ती को संदर्भित कर न सिर्फ एक विकृत राजनीतिक मानसिकता की बखिया उधेड़ता है बल्कि अब समाप्त कर दिए गए इस औचित्यहीन आडंबर से उपजे प्रतिष्ठा की एक झूठी अवधारणा को भी क्षत-विक्षत करता है। लेखक का यह कथन देखिये –

“लालबत्ती के प्रति उनका आकर्षण बीमारी की हद तक था, वे गाड़ी की टायरों की आवाज़ सुनके बता देते कि गाड़ी लालबत्ती वाली है कि नही।”

सरकार द्वारा लालबत्ती संस्कृति समाप्त किये जाने पर लामचंद कहता है –

“यह लोकतंत्र की विशिष्टता पर प्राणघातक हमला है। लालबत्ती के अस्तित्व को समाप्त करना अनुशासन को समाप्त करना है। जनप्रतिनिधियों की विशिष्टता को नष्ट करना जनतंत्र को नष्ट करना है, लोकतंत्र आम आदमी को ख़ास बनाता है, ख़ास को आम बना देना लोकतंत्र के विरुद्ध चलने जैसा है। देश व्यवस्था से चलता है और व्यवस्था बत्ती से बनती है।”

लालबत्ती के लालच पर लेखक का इससे बड़ा ‘परुष-प्रहार’ और क्या हो सकता था?

अपने एक अन्य व्यंग्यात्मक लेख ‘आभासी क्रांति’ में लेखक ने सोशल मीडिया के सहारे क्रांतिकारी बदलाव का स्वप्न पाले या यूँ कहिये कि ऐसे किसी मुगालते में जी रहे भीड़ की मनोदशा और कुंठा का चरित्र-चित्रण किया है। इस लेख में लेखक और एक अन्य पात्र के बीच का यह संवाद देखिये –

मैं शर्मिंदगी से गड़ गया और लगभग फुसफुसाते हुए कहा, “भाईसाहब, आप जिस बदलाव की बात कर रहे हैं, वह मुझे तो कहीं दिखाई नही दे रहा, सब पहले जैसा ही तो है।” वे भड़क गए, “दिखाई कहाँ से देगा, एक्टिव ही नही हैं व्हाट्सअप पर। घर में घुसे रहते हैं बस। फेसबुक, ट्विटर, इन्स्टा, व्हाट्सअप पर आकर देखो क्रांति मची पड़ी है वहां। एक-से-एक देशभक्त मिल जाएंगे आपको, हमलोगों ने दिन-रात एक करके धर्म से लेकर मर्म तक सबकुछ बदलकर रख दिया है सोशल मीडिया पर।”

अपने एक अन्य व्यंग्य-लेख ‘अंतरात्मा का जंतर-मंतर और तंतर’ में लेखक सत्ता-पक्ष और विपक्ष में बैठे राजनैतिक शक्तियों के लोक-व्यवहार में विभेद या यूँ कह लीजिये कि लोक-आचरण में एक आश्चर्यजनक समानता को बड़ी ही संजीदगी से उजागर करता है। इस लेख का यह अंश देखिये –

“लेकिन जैसे ही अंतरात्मा सत्ता में आती है, बिलकुल चुप हो जाती है, और मान लीजिये कि सत्ता में रहते हुए कभी अगर अंतरात्मा बोले भी, तो समझिये कि आप पक्ष में होते हुए भी विपक्ष टाइप का फील कर रहे हैं, तब वह बोलती नही है, सिर्फ भाषण देती है। अंतरात्मा जबतक आप विपक्ष में हैं तबतक जागती रहती है, लेकिन जैसे ही आप सत्ता में आए यह फटाक से सो जाती है। फिर आपके कान पर नगाड़े भी बज रहें हों, बड़े-से-बड़े धमाके भी क्यों न हो जाएँ, यह नही उठती, गहरी नींद में सोती रहती है।”

अपने एक अन्य लेख, ‘आत्माराम विज्ञानी’ में लेखक सोशल मीडिया पर उपस्थित छद्म लोगों की भीड़ और इससे पनपी ‘ट्रोलिंग अपसंस्कृति’ को आड़े हांथों लेने के साथ-साथ ‘लामचंद की लालबत्ती’ की ही तर्ज पर छद्म-प्रतिष्ठा के एक आधुनिक स्वरुप के रूप में स्थापित ‘ब्लू-टिक वेरिफाइड सोसल मीडिया हैंडल्स’ पर भी तीक्ष्ण व्यंग्यात्मक प्रहार किया है।

लेखक का एक अन्य लेख ‘चित्त और वित्त’ आत्ममुग्धता की खतरनाक प्रवृति पर ऐसे लोगों को आइना दिखाता है जो स्वयं को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति मानकर चलते हैं और दूसरे के विचार और भाव को तनीक भी सुनने-समझने का धैर्य नही दिखाते। इस लेख का यह अंश देखिये –

“इधर-उधर से चुरा-चुरू के एक लेख क्या लिख दिया, अपने आपको निराला समझने लगे। पान तो ऐसे चबा रहे हो, जैसे तुम प्रेमचंद हो.”

एक दुसरे सन्दर्भ में ‘गुंचई का गीता ज्ञान’ भी आत्ममुग्धता की इसी प्रवृति पर तंज है।

‘मैं और मोह’ नामक लेख में लेखक का यह वाक्य कि, ‘नारद ने बहुत होशियारी से इस सिद्धांत को प्रचारित कर दिया था कि नारद का विरोध करनेवाला नारायण का विरोधी माना जाएगा’, समसामयिक राजनीति के अनेक विकृत पक्षों पर निर्मम प्रहार करता है।

‘हैप्पी बर्थडे बापू’ में लेखक ने स्वयं और बापू के बीच एक काल्पनिक संवाद के माध्यम से महात्मा गांधी के सारे सपनों को धराशायी करते हुए और उनके समस्त संदेशों को पददलित करते हुए एक ऐसे समाज का चित्र उकेरा है जिसे अब स्वाधीनता के समय देखे गए सपनों की विशेष परवाह न रही।

इसी प्रकार इस किताब के अन्य संकलित लेखों में भी गूढ़ सामाजिक-राजनैतिक सन्देश व्यंग्य के माध्यम से विन्यस्त हैं। मेरे समझे, बौद्धिकता से इतर, लेखक खुलकर अपनी व्यंग्य-बाण चला पाने में इसलिए भी समर्थ हो पाया है क्योंकि वह राजनीतिक रूप से असंपृक्त है, अतः उसकी विश्वदृष्टि, उसकी व्यंग्यदृष्टि संकुचित न होकर समग्र है, विस्तारित है।

कहने का आशय यह बिलकुल भी नही है कि राजनीति से जुड़े लोग निहायत तौर पर संकुचित दृष्टि के स्वामी होते हैं, अपितु यह कि राजनीति की तमाम व्यावहारिक बाध्यताएं एक सच्चे आदमी को भी, या तो जहाँ संच बोलना जरुरी हो वहां झूठ बोलने के लिए प्रोत्साहित करती है, अथवा झूठ के खिलाफ चुप हो जाने के लिए विवश।

विख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई कहा करते थे कि, “व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, अत्याचारों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है।” व्यंग्य के ये तमाम अंतर्निहित गुण, इसके समस्त आधारभूत तत्व, वह मुअम्मा जिसे पाठक आरम्भ से अंत तक खोजता रहता है, ‘मौन मुस्कान की मार’ में पुरे प्राणपन से तरंगित हैं।

उनके लेख आँखों के सामने एक ऐसा दृश्य खींचते हैं जिसमे अभिनेता आशुतोष और अध्येता आशुतोष को अविलग करके देखना मुश्किल हो जाता है। ऐसा लगता है वह अपने द्वारा बुनी गयी कहानियों में स्वयं अदाकारी भी कर रहे हैं।

देशकाल की गहरी समझ का चित्र जो उनकी व्यंग्यों में उभरता है, वह सूक्ष्म सामाजिक निरिक्षण और बौद्धिक गांभीर्य के गहरे गर्भ से जनमती है। वह प्रसुत होती है जीवन की एक ऐसी प्राणधारा से जो एक व्यापक विश्वदृष्टि, महीन सामजिक अवलोकन, अनुसन्धान, अध्ययन एवं आंतरिक विमर्श पर अवलंबित है।

श्री आशुतोष राणा का सर्जनात्मक स्पंदन व्यंग्य के माध्यम से विराटत्व का चयन है। बिना किसी शब्दाडम्बर के इनमे गहरी अर्थव्यंजना है। उनके व्यंग्यों में सामाजिक सुधार की संभावनाओं की एक ऐसी सघन अभिव्यक्ति है जिसे समाज यदि अंतर्मन से स्वीकारे और अपने आचरण में उतारे तो अनगिनत सामाजिक-जड़ताओं को जड़ से उखाड़ फेंकने का पुरजोर सामर्थ्य है इनमें।

रोहित ✍