दो साल लगातार सूखे की भयावह मार झेलने के बाद जब इस साल अच्छी पैदावार हुई, तो किसानों को फ़सल की कीमत ही नहीं मिली। और तो और, ज़्यादातर मौकों पर सरकार ने फसल ख़रीदी ही नहीं। हर बार की तरह, किसान फिर से बेचारा हो गया। एक तरफ़ जहाँ खून पसीने से उपजाई अपनी फ़सल कौड़ियों के भाव बेचने को मजबूर हो गया। वहीं दूसरी तरफ़, सरकार ने कुछ फसलों का विदेश से आयात कर लिया। वो भी महँगी कीमत पर। लेकिन अपने किसानों की फ़सल न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भी नहीं ख़रीदी। ये सब वही मोदी सरकार कर रही है जिसने चुनाव से पहले किसानों को बड़े बड़े वादे किये थे। हरियाली और समृद्धि के सुनहरे सपने दिखाए थे।
आज देश एक बहुत बड़े कृषि संकट के दौर से गुज़र रहा है दोस्तों। किसान भारी कर्ज़े में डूबा हुआ है। हर दिन कहीं न कहीं से हमारे अन्नदाता के खुदकुशी की खबरें आती हैं। देश का पेट भरने वाला किसान खुद अपने परिवार का पेट नहीं पाल पा रहा। जहाँ एक तरफ़ देश का स्वाभिमानी किसान कर्ज़ ना चुका पाने के कारण ख़ुदकुशी कर रहा है, वहीं लाखों करोड़ों का कर्ज़ लेकर माल्या जैसे पूँजीपति विदेश भाग जाते हैं, वो भी ख़ुद सरकार की सांठगांठ से।
जिन कारणों से खेतीबाड़ी की ऐसी दयनीय स्थिति है, जिन कारणों से किसान ये सब झेल रहा है, वो हैं मौसम की मार, बाज़ार की स्थिति, राजनीतिक इच्छाशक्ति और सरकार की नीति। यानि कि किसानों की बदहाली का एक भी ऐसा कारण नहीं, जो किसान के कंट्रोल में हो। लेकिन भुगतना किसान को पड़ता है। मरता किसान है। और जब इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ वो आवाज़ उठाता है, विद्रोह करता है तो दर्द समझने की बजाए सरकार बर्बरता से किसानों को ही कुचलने की योजना बनाती है। इसीका उदाहरण है मध्यप्रदेश के मंदसौर में अपना हक़ माँग रहे 6 किसानों का सरकारी गोलीबारी में शहीद होना।
आज स्थिति ऐसी है कि कोई भी किसान अपने बच्चे को किसान नहीं बनाना चाहता। जिनके पास खेती की ज़मीन है वो लोग भी मजबूर होकर गाँव से पलायन कर रहे हैं। गाँव में खेती करने के बजाए शहर में रिक्शा चलाने को, मज़दूरी करने को भी तैयार हैं। आज भी हमारा देश कृषि-प्रधान, ग्राम-प्रधान कहलाता है। लेकिन अगर स्थिति ऐसी ही बनी रही तो एक सीमा के बाद हमारे गाँव ही नहीं, शहर भी इस बदलाव और दबाव को झेल नहीं पाएंगे।
इन चिंताजनक परिस्थितियों में मंदसौर की शहादत से निकला यह किसान आंदोलन देश के लिए उम्म्मीद की एक किरण है। आंदोलन की पहली सफ़लता है कि कई किसान संगठन, किसान नेता और किसान आज एकजुट हो गए हैं। वरना सबसे बड़ी त्रासदी थी कि देश के किसान ने ख़ुद को राजपूत, ब्राह्मण, दलित, यादव, जाट, कुर्मी, हिन्दू, मुसलमान के नाम पर अलग अलग पार्टियों में बाँट रखा है। अपने राजनीतिक व्यवहार में किसान ख़ुद को किसान के तौर पर देखता ही नहीं। अब समय आ गया है कि हम सब एकजुट होकर सरकार की नाकामी और वादाख़िलाफ़ी को उजागर करें। समाज और सरकार को विकास की सही परिभाषा समझाएं। सही काम करने को मजबूर करें। दबाव बनाएं।
आज की यह लड़ाई सिर्फ़ किसान या खेती बचाने के लिए नहीं है दोस्तों। ये देश के हर नागरिक की लड़ाई है। हर युवा, हर डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, सरकारी प्राईवेट कर्मचारी, अधिकारी, हर देशवासी की लड़ाई है। अगर किसान और खेती बचेगी, तभी देश के गाँव बचेंगे। और गाँव बचेंगे तभी हमारे शहर बच पाएंगे। हमें समझना होगा कि देश दुनिया कितनी भी प्रगति कर जाए, चाहे कितना भी प्रौद्योगिकी विकास हो जाए, धान गेहूँ दलहन फैक्टरियों में नहीं होंगे। हमारा पेट भरने वाला अन्न खेतों में ही उपजेगा। इसलिए ज़रूरी है खेती करने वालों को बचाना। आप स्वयं खेती करते हों या नहीं, लेकिन खाना तो खाते हैं न? भोजन तो ग्रहण करते हैं न? मतलब कि यह आंदोलन देश का पेट भरने के लिए है। खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए है।
खेतीबाड़ी को फ़ायदेमंद और समृद्ध बनाना ही सही मायनों में देश को सशक्त बनाना है। किसानों को उनका वाज़िब हक दिलाना ही असल राष्ट्रवाद है।
मैं तो राष्ट्रवादी हूँ! ..क्या आप हैं?
18 जुलाई को जंतर मंतर आ रहे हैं न? अपनी लड़ाई लड़ने..

Political Activist and President of Yuva Halla Bol. Likes Painting, Poetry & People.