बिहार की ऐतिहासिक ज्ञानमयी उर्वरक मिट्टी में जन्मे एवं पले-बढे विश्व-प्रसिद्द उपन्यासकार, निबंधकार, पत्रकार एवं आलोचक, जॉर्ज ओरवेल ने अपनी अनेक कालजयी कृतियों में से एक ‘1984’ में कहा है कि, “The most effective way to destroy people is to deny and obliterate their own understanding of their history and culture”. अर्थात, ‘लोगों को बर्बाद करने का सबसे असरदार तरीका यही है कि आप उसे उसके अपने इतिहास और संस्कृति की समझ को पूर्णतः अस्वीकार कर दें एवं उसे जड़ से मिटा दें.’
मैं जॉर्ज ओरवेल से पूर्णतः सहमत हूँ. व्यक्ति-रुपी वृक्ष को फैलने के लिए, उसके उत्थान के लिए, पूरा आकाश है, पूरा गगन है, परन्तु ‘जड़’ अद्वितीय है. सींचता भले ही उसे जल है, सेवता भले ही उसे सूर्य का धुप है, पर बावजूद इन सबके ‘जड़’ के बिना वृक्ष का कोई अस्तित्व नही है. ‘जड़’ के बिना वृक्ष का कोई जीवन नही है. जल के बिना वृक्ष बहुत दिनों तक खड़ा रह सकता है, शायद धुप के बिना भी, परन्तु ‘जड़-रहित’ वृक्ष असंभव है, एक पल के लिए भी. मृत्यु हो जायेगी उसकी, समाप्त हो जाएगा उसका अस्तित्व. ऐसा है ‘जड़’ का मूल्य. ठीक यही बात, यही मूल्य, मानवीय अस्तित्व में, इतिहास और संस्कृति का है. इतिहास और संस्कृति ही मानवीय अस्तित्व की चेतना के सुगन्धित फुल हैं, धरती में दूर तक समाहित उसके गहरे जड़ हैं, मिट्टी से जोड़े रखने का एक अदभुत ज्ञानजनित माध्यम है, बेजोड़ मानवीय सामजिक सामंजस्य की जननी है. अपने जड़ से कटा वृक्ष और अपने इतिहास और संस्कृति से कटा मनुष्य, सिर्फ और सिर्फ मुर्दा है, मुर्दा.
आज बिहार दिवस पर कहना चाहता हूँ कि मुझे असीम गर्व है उस मिट्टी में पैदा लेने पर जिस मिट्टी को सिद्धार्थ ने गौतम से बुद्ध बनने के लिए ह्रदय से अंगीकार किया. जिस मिट्टी ने महावीर को और महावीर ने जिस मिट्टी को जन्म और ह्रदय से स्वीकार किया.
हालांकि, यह स्वीकार करने में मुझे कोई शर्म और संकोच नही है कि इतिहास के दर्पण में अलौकिक तेज से झलकता हुआ बिहार का आनन वर्तमान में थोडा मलीन जरुर हो चूका है, पर विकृत नही. आशा को जीवित रखने की नितांत आवश्यकता है, सिर्फ मन से नही, कर्म से भी. बिहार को एक बार फिर से ज्ञान के पथ पर अग्रसर होना है. ज्ञान का पताका फहराना है, तभी बिहार के आनन् का ऐतिहासिक अलौकिक तेज इसे दुबारा प्राप्त हो सकेगा.
