दिनकर की कविता ‘हिमालय’। सन् 1933 में लिखित यह कविता ‘रेणुका’ काव्य-संग्रह का हिस्सा है। ‘मेरे नगपति, मेरे विशाल’!
“मेरे भारत के दिव्य भाल!
मेरे नगपति! मेरे विशाल!
…
ओ, मौन, तपस्या लीन यति!
पल भर को तो कर दृगन्मेष
रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल
है तड़प रहा पद पर स्वदेश।”
दिनकर ‘हिमालय’ से आह्वान करते हैं। हिमालय यहाँ बिम्ब है। कवि-हृद्य बिम्बों के सुंदर प्रयोग से अपनी बात रखता है। हिमालय-भारत का दिव्य भाल, यानि भारत का मस्तिष्क, भारतीय मानसबोध! पूरी कविता में द्वंद्वात्मक बिम्ब लिए गए हैं। ये द्वंद्वात्मक ज़रूर हैं, किंतु अद्वैत हैं। अर्थात् एक ही अवयव के दो प्रतिरूपों का निरूपण है।
हिमालय विशाल है, तप-साधना और धैर्य का द्योतक है। हिमालय में सामर्थ्य है; लेकिन सुषुप्त है, साधना में लीन है। यही भारतीय मानसबोध का द्वंद्व है; सामर्थ्यवान् है, लेकिन सुषुप्त है। श्रीमद् भागवद् गीता की दार्शनिक भाषा में इसे हम ज्ञान योग और कर्म योग के रूप में देखते हैं। दिनकर उस भारतीय मानसबोध का आह्वान कर रहे हैं – संघर्ष, प्रतिरोध और इंक़लाब के लिए।
“रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर,
पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
कह दे शंकर से, आज करें
वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।
सारे भारत में गूँज उठे,
‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार।”
महाभारत की गाथा में युधिष्ठिर धैर्य के प्रतीक हैं तो अर्जुन-भीम व्याकुल सामर्थ्य के। शिव तप और साधना के प्रतीक हैं तो शक्ति, प्रतिरोध और विप्लव के भी। और, यही द्वंद्व भारतीय मानसबोध का है। दिनकर बिम्बों के सहारे भारतीय नव जागरण को उद्वेलित कर रहे हैं। वह इतिहासबोध कराते हैं, यथार्थबोध कराते हैं, सामर्थ्यबोध कराते हैं; और आह्वान करते हैं भारतीय जन मानस से – संघर्ष के लिए, प्रतिरोध के लिए, इंक़लाब के युगधर्म में आहुति के लिए।
इस कविता की एक दूसरी समझ हो सकती है, बिम्बों से परे, निरे शाब्दिक अर्थों में। कवि की भाषा को शाब्दिक अर्थों में समझ, अक्सर कुछ लोग संकीर्ण हास्य-विनोद का प्रश्रय लेते हैं। कहते हैं कि हिमालय अगर भारत का भाल है तो हिमालय की चोटी पर चढ़ाई करने वाले तो माथे को पैरों से रौंद आए। हिमालय अगर रक्षा करने वाला है तो क्यों अपने ही गोद में बसे लोगों के लिए त्रासदी बनकर आ जाता है? हिमालय अगर इतना विशाल और सामर्थ्यवान् है तो क्यों उसकी रक्षा करनी पड़ती है? कैसे दूसरे देशों की सेना इसका अतिक्रमण कर देती है? ये बड़े बचकाने और हास्यास्पद आक्षेप हैं।
दिनकर का ‘हिमालय’ महज़ हिम और गिरि का रूप नहीं। उससे निकलती नदियाँ महज़ जलस्रोत नहीं। दिनकर का ‘हिमालय’ भारतीय संस्कृति का एक प्रतीक है, भारतीय मानसबोध का द्योतक है। उसकी नदियाँ नित नवीन ऊर्जावान विचारपुंज हैं। दिनकर उस भारतीय मानसबोध और ऊर्जावान विचारपुंज का आह्वान कर रहे हैं, नव जागरण का शंखनाद कर रहे हैं।
“तू मौन त्याग, कर सिंहनाद
रे तपी आज तप का न काल
नवयुग-शंखध्वनी जगा रही
तू जाग, जाग मेरे विशाल!”
(Writer of the article Kunal Gauraw is an engineer by profession, currently working as a Image Processing Algorithm Developer in an Automotive Research Center in Gurgaon)